ईश्वर की सत्ता

Category :- Darshan (18)

।। ओ३म् ।।

 

ईश्वर की सत्ता 

 

वेदांत दर्शन - 

अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ॥१ ॥१ ॥१॥

 

(अथ) शम दमादि साधन सम्पन्न होने के पश्चात्‌ (अतः) इससे आगे (ब्रह्मजिज्ञासा) ब्रह्म के जानने की इच्छा होनी चाहिए।

 

जन्माद्यस्थ यतः ॥९ ।१ ।२॥

 

(यत: ) जिसके होने से (अस्य) इस जगत्‌ के (जन्मादि) होते हैं (वह ब्रह्म है)

 

जिसके बिना जगतू की उत्पत्ति, रक्षा और प्रलय नहीं हो सकते, जिसके होने मै ही जगत्‌ की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय होते हैं, बह वस्तु ब्रह्म हैं।

 

शास्त्रयोनित्वात्‌॥१ ।१।३॥

 

(शास्त्रयोनित्वात्‌) वेद-शास्त्र का कारण होने से पाया जाता हे कि सब जगत स्थूल सुक्ष्म पदार्थों का तथा सब विद्याओं के बीज रूप भण्डार वेद शास्त्र का कर्त्ता व प्रकाशक ब्रह्म है।

 

तत्तु समन्वयात्‌॥ १।१ ।४॥

 

(तत्‌) वह-ब्रह्म (तु) तो (समन्वयात्‌) वेद वाक्यों के साथ समन्वय से सिद्ध है। यथा-

 

यस्मान्न जात: परो5अन्यो5उस्ति य आविवेश भुवनानि विश्वा।

प्रजापतिः प्रजया सं रराणस्‌ त्रीणि ज्योती८”षि सचते स षोडशी ॥ यजु० ८ ।३६॥

 

(थस्मात्‌) जिस परमात्मा से (परः:) उत्तम (अन्य) दूसरा कोई (न जात: ) प्रसिद्दवहीं (अस्ति) है और जो (विश्वा) सब (भुवनानि) स्थानों में (आविवेश) प्रविष्ट) है, व्यापक है, वह (प्रजापति: ) विश्व का अध्यक्ष (प्रजया) सब संसार के द्वारा ( संरराण: ) श्रेष्ठ दाता एवं (षोडशी) १-इच्छा, २-प्राण, ३- श्रद्धा, ४-पृथिवी, ५- जल, ६ -अग्रि, ७- वायु, ८-आकाश, ९-इन्द्रियां, १०-मन, ११-अन्न, १२-वीर्य, १३  -हप, १४-मस्त्र, १५-लोक और १६-नाम रूप सोलह कलाओं वाला. (त्रीणि ज्योतिए षि ) सूर्य, विद्युत्‌ और अग्नि नामक तीन ज्योतियों में (सचते) समवेत हो रहा है, व्यापक है।

 

न्याय दर्शन -

तत्कारितत्वादहेतु:। ४ ।१।२१॥ 

(तत्कारितत्वातू) ईश्वर के कराये होने से। यह सूत्र सिद्धान्त का वर्णन करता है। इस विषय में सबकी सम्मति है। प्राणियों में प्रयास ईश्वर से कराए जाते हैं इस कारण प्राणी कर्मों की सहायता से ही जगत्‌ कार्य का ईश्वर निमित्त कारण है-इस पक्ष का खण्डन करने के लिये ' पुरुषकर्माभावे फलानिष्पत्ते:' ४।॥१|२०॥ यह हेतु साध्य या साधन नहीं हो ऐसा यहां सिद्धान्तसूत्र का आशय है।

 

वैशेषिक दर्शन - 

तद्वचनादाप्रायस्य प्रामाण्यम्‌॥ 

(तद्वचनात्‌) उस वेदप्रकाशक ऋषि-परमात्मा के उपदिष्ट होने से ( आम्नायस्य) वेद भगवान्‌ का (प्रामाण्यम्‌) स्वतः प्रामाण्य है। 

यदि वेदादि शास्त्र में अभ्युदय और मोक्ष के साधन धर्म का वर्णन न होता तो लोक उसको निरर्थक जानकर प्रमाण न करता परन्तु वेदादि शास्त्र में. धर्म का निरूपण है और धर्म मनुष्य के ऐहिक आमुष्मिक कल्याण का साधन है इसलिए लोक वेदादि शास्त्र में प्रामाण्य बुद्धि रखता है और रखनी चाहिए भी। यही बात मीमांसा दर्शन १॥१।२। में कही गई है कि 'चोदनालक्षणोऽथों धर्म: '॥ जिसकी प्रेरणा वेद आदि शास्त्र करता है वह धर्म है तथा मनु महाराज ने २॥१३ में भी यही कहा है कि ' धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुति: ' धर्म के जिज्ञासुओं को परम प्रमाण वेद है। मनु ४।१४ में भी कहा है कि-

 

वेदोदितं स्वकं॑ कर्म नित्य कुर्यादतन्द्रितः ।

तदिद्वि कुर्वन् यथाशक्ति प्राप्रोति परमां गतिम्‌॥ मनु० ४।१४

 

अर्थात्‌ वेदप्रतिपादित स्वधर्म का अनुष्ठान निरालस्य होकर सदा करे क्योंकि यथाशक्ति उसका सेवन करने वाला परमगति-मोशक्ष को प्राप्त होता है।

 

योगदर्शन -

ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥१ ।२३॥

व्यासभाष्य- 'प्रणिधानाद्‌ भक्तिविशेषादावर्जित ई श्ररस्तमनगुह्नात्यभि-ध्यानमात्रेण। तदभिध्यानमात्रादपि योगिन आसन्नतर: समाधि: फलं च भवतीति॥ '

 

अर्थ- भक्तिविशेष से सन्मुख हुआ योगी ईश्वर उस पर अनुग्रह करता है, मोक्षमात्र संक्ल्प होने से | और उसके ध्यानमात्र से योगी को अतिशीघ्र ही समाधिलाभ और उसका फल प्राप्त होता है। 

वेद भी इसी बात की पुष्टि करता है। यथा-

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तातू।

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेडयनाय ॥ यजुर्वेद ३१।१८॥

 

इस परम प्रकाशस्वरूप अविद्या अन्धकार से अति पृथक्‌ सबसे बड़े पुरुष अर्थात्‌ ब्रह्म को जानता हूं, इसको ही जानकर मृत्यु का उल्लंघन कर सकते हैं | उसके ज्ञान के बिना अभीष्ट स्थान मोक्ष की प्राप्ति के लिये अन्य कोई मार्ग नहीं है।

 

सांख्य दर्शन -

उपरागात्‌ कर्तृत्वं चित्सान्निध्यात्‌॥ १ ।१६४॥ 

(उपरागात्‌) प्रकृति के उपाश्रय से उस प्रकृति के उसके अधीन वर्तमान होने से पुरुषविशेष ईश्वर का (कर्तृत्वम्‌) सृष्टि का कर्ता होना है। जैसे कहा है- 'एकं रूप॑ ब्रहुधा यः करोति' श्वेता० ६।१२ एक रूप को जो बहुधा कर देता है। और (चित्सान्निध्यात्‌) चेतन पुरुष विशेष ईश्वर के सन्निधान सम्बन्ध से संसर्ग से समावेश सम्बन्ध से प्रधान का प्रकृति नामक अव्यक्त का कर्तृत्व-कर्तापन है।

 

मीमांसा दर्शन - 

पुरुषार्थेकसिद्धत्वात्तस्थ तस्याधिकारः स्यात्‌।१। अपि वोत्पत्तिसंयोगाद्यथा स्यात्‌ सर्वदर्शने तथाभावो 5विभागे स्यात्‌ ।२। प्रयोगे पुरुषश्रुते्य थाकामो प्रयोग: स्यात्‌।३ । प्रत्यर्थ श्रुतिभाव इति चेत्‌ ।४। तादर्थ्येन गुणार्थता5नुक्ते 3र्थान्तरत्वात्कर्तु: प्रधानभूतत्वात्‌1५। अपि वा कामसंयोगे सम्बन्धात्‌ प्रयोगायोपदिश्येत, प्रत्यर्थ हि विधिश्रुतिव्विषाणवत्‌ ।६॥। अन्यस्यापीति चेत्‌ ।७ । अन्यार्थे० नाभिसम्बन्ध: ।७ । फलकामो निमित्तमिति चैत्‌।९। न नित्यत्वात्‌।१०॥ (मीमांसा अध्याय ६। पाद २)

 

अर्थ - मनुष्य का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार फलों की सिद्धि है। इसके लिए प्रत्येक वर्ण वाले को अपने-अपने अधिकारानुसार प्रयत्न करना चाहिए ॥१॥ जन्मकाल के संयोग से अन्तःकरण की बनावट निर्माण जैसा हो जाता है उसी के अनुसार वर्णभेद भी हो जाता है ॥२॥ वेद में पुरुष को कर्मों का कर्त्ता माना गया है। हदनुसार प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में स्वतन्त्र कहा है, तो भी लोक में वह अनेक बातों मैं परतन्त्र दिखाई देता है ? इसका समाधान यह है कि कर्त्तरूप से मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है पर उस-कर्म का फल भोगने में: परतन्त्र है। इसी से उसकी स्वतन्त्रता अपूर्ण जान पड़ती है ॥४-५। जिस प्रकार पशु-अपने सींग से बदन को खुजला सकता है, वह इस कार्य में स्व॒तन्त्र है, पर इनके फलस्वरूप जो सुविधा या असुविधा उत्पन्न हो.जाये उसे अनिवार्य रूप से भोगना होगा ।५॥ शंका है कि एक व्यक्ति के किये हुए कर्म का फल दूसरा व्यक्ति नहीं भोग सकता ? इसका उत्तर है कि इस प्रकार का कोई सम्बन्ध या नियम नहीं है ।७-८ । फिर शंका है कि जो व्यक्ति किसी दूसरे के लाभार्थ करता है हो उसका फल उस दूसरे को प्राप्त होता है। इसका उत्तर यही है कि कर्म के सम्बन्ध में परमात्मा का नियम अटल है, उसमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं पड़ सकता ॥९-१०॥

 

कर्म तथेति चेत्‌।११। न समवायात्‌।१ २। प्रकर्मात्तु नियम्येतारम्भस्य क्रियानिमित्तत्वात्‌।१ ३ । फलार्थित्वाद्वाउनियमो यथानुपक्रान्ते । १४ । नियमो वा तन्निमित्तत्वात्कर्तुस्तत्कारणं स्यात्‌।१९५ | लोके कर्मणि बेद्वत्ततो5धि-पुरुषज्ञानम्‌।१६। अपराधेति च तैः शास्त्रम्‌।९७। अशास्त्रात्तूपसम्प्राप्ति: शास्त्र स्यान्न प्रकल्पकं, तस्मादर्थन गम्येताप्राप्ते शास्त्रमर्थवत्‌ ।९८। प्रतिशेधेष्वकर्मत्वात्‌ क्रिया स्यात्‌ प्रतिसिद्धानां विभक्तत्वादकर्मणाम्‌।२०। शास्त्राणां त्वर्थवत्त्वेन पुरुषार्थों विधीयते तयोरसमवायित्वात्तादर्थ्ये विध्यतिक्रम: 1२१ । ( मीमांसा अ० ६। पा० २ )

 

अर्थ - फिर प्रश्न किया जाता है कि एक के द्वारा कमाये धन का दूसरे को भोग करते हम प्रत्यक्ष देखते हैं 2 तो इसका उत्तर है कि जीव का अपने कृतंकर्मों के साथ जो सम्बन्ध है बह मिट नहीं सकता और जो दूसरों का धन भोग करने को पा जाता है तो बह उसके पुराने या नये कर्मों का फल होता है। यदि कभी किसी को बिना इस प्रकार के सम्बन्ध के किसी का धन मिल जाता है तो बह अपने आप ही नष्ट हो जाता है अथबा रोग दुर्घटना आदि कोई ऐसी बाधा उपस्थित हो जाती है जिससे वह उसका भोग नहीं कर सकता।११-१२ । फिर शंका है कि यदि प्रारब्ध की ऐसी प्रबलता है तो मनुष्य का कर्म करने में स्वतन्त्र कहना व्यर्थ है ? इसका उत्तर यह है कि प्रारब्ध.रूप कर्म मनुष्य को केवल भोग देने के लिये होते हैं | वर्तमान समय के क्रियमाण कर्मों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनको मनुष्य यथारूप भला या बुरा करके आगे के लिये वैसी ही प्रारब्ध बना सकता है ॥१३ । फिर शंका है कि मनुष्य जो कुछ कर्म करता है वह भोग के लिए ही करता है। तब यदि प्रारब्ध द्वारा उसके भोग नियत हैं तो उसी प्रकार के कर्म करने पड़ेंगे। ऐसी अवस्था में उसे कर्म करने में स्वतन्त्र नहीं कह सक़ते ? इसका उत्तर यह है कि प्रारब्ध द्वारा नियत बुरे-भले भोगों को भोगता हुआ भी मनुष्य आगामी कर्मों को किसी भी-प्रकार कर संकता है।१४-१५। पूर्वपक्ष कहता है कि जब कर्म विधि निषेध किए जाते हैं तो संसार में बही वेद का काम है सकते हैं अन्य वेद को मानने से क्या प्रयोजन है ? जैसे कोई अपराध करने पर दण्ड देने वाला शास्त्र संसार में बनाया गया, उसी प्रकार मनुष्य के प्रवृत्ति-मूलक और निवृत्तिमुलक कार्यों के लिए भी लौकिक शास्त्र काम दे सकता है, वेदों की क्या आवश्यकता है ? इसका उत्तर यह है कि इन्द्रियों से अगोचर  ज्ञान वेदरूप शास्त्र से ही हो सकता है, यदि ईश्वर और पारलौकिक विषयों का ज्ञान अपने आप हो जाता है तो शास्त्र को न मानने की बात कही जा सकती थी । शास्त्र का ज्ञान ईश्वर का आश्रय लेने से ही हो सकता है। १६-१९ निषिद्ध पदार्थों और कर्मों का ज्ञान शास्त्र द्वारा होता है।

 

 

इस प्रकार वेदों तथा दर्शनों ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया है।

  1. षड-दर्शन-सार = स्वामी वेदरक्षानन्द सरस्वती

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