ईश्वर शरीर धारण नहीं करता

Category :- Darshan (18)

ईश्वर शरीर धारण नहीं करता

 

वेदान्त दर्शन

 

पत्युरसामञ्ञस्यात्‌ ॥२ !२ ।३७॥

(पत्युः) ईश्वर सर्वाधिकारी के (असामञ्ञस्यात्‌) सामञ्ञस्य न होने से।

 

सम्बन्धानुपपत्तेश्च ॥२।२ ।३८ ॥

(च) और (सम्बन्धानुपपत्ते:) सम्बन्ध के सिद्ध न होने से।

यदि बद्ध मुक्त दोनों दशाओं में अविशेष भाव से रहनेवाले जीव को ही ईश्वर पदवी देवें तो जीवों में एक का दूसरे से कोई व्याप्य व्यापक, पूज्य पूजक, दयालु दयनीयादिं सम्बन्ध न बनने से भी यह निरीश्वर मुक्तिवाद ठीक नहीं।

 

अधिष्ठानानुपत्तेश्च 1२ 1२ ।३९॥

(च) और ( अधिष्ठानानुपपत्तेः) कोई किसी पर अधिष्ठाता सिद्ध न होने सें।

 

करणदवच्चेन्न भोगादिभ्य: ॥२ ।२ ।४०॥

(चेत्) यदि (करणवत्‌) करण-साधन=इन्द्रियां वा मन उसके स्वरूप में माने तो भी (न) नहीं हो सकता, क्योंकि (भोगादिभ्य: ) भोग प्राप्ति आदिं दोषों सें।

 

अन्तवत्त्वमसर्वज्ञता वा॥ २।२।४१॥

(अन्तवत्त्वम्) अन्तवान्‌ होना (वा) अंथवा (असर्वज्ञता) सर्वज्ञ न होना !

परिच्छिन्न स्वरूप जीव ही को ईश्वर पदवी देने से ईश्वर का परिमाण अनन्त और उसका ज्ञात अनन्त नहीं हो सकता।

 

उत्पत्त्यसंभवात्‌॥२ ।२ ।४२॥

(उत्पत्त्यसंभवात्‌) उत्पत्ति हो नहीं सकने से।

 

नच कर्तु: करणम्‌॥२ ।२ ।४३॥

(च) और (कर्तु:) कर्त्ता का कोई (करणम्‌) साधन भी नहीं है।

 

विज्ञानादिभावे वा तदप्रतिषेध: ॥२।२ ।४४॥

(वा) अथवा (विज्ञानादिभावे) यदि ईश्वर पदवी पाये जीव में सविज्ञान, सर्वव्यापकता आदि भाव मान लिया जाये तो (तदप्रतिषेध: ) वेदान्तप्रतिपाद्य परमात्मा की सत्ता का प्रतिषेध करते हो सो नहीं हो सकता।

 

विप्रतिषेधाच्च ॥२ ।२ ।४५॥

(च) और (विप्रतिषेधात्‌) परस्पर विरोध दोष आने से भी।

 

अनादि स्वतन्त्र सर्वज्ञ सर्वव्यापक ईश्वर को न मानना और अपनी ओर से ईश्वर 'पदवी पाये जीव में वे सब बातें मान लेनी, जो ईश्वरवादी ईश्वर में बताते हैं यह परस्पर विरोध है। अतः ईश्वर शरीर धारण नहीं करता।

 

योगदर्शन -

 

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ई श्वरः ॥१ ।२४॥

व्यासभाष्य-अविद्यादय: क्लेशा:। कुशलाकुशलानि कर्माणि। तत्फलं विपाक:। तदनुगुणा वासना आशया:। ते चर मनसि- वर्तमाना: पुरुषे व्यपदियन्ते, स हि तत्फलस्य भोक्तेति । यथा जय: पराजयो वा योद्धृषु वर्तमान: स्वामिनि व्यपदिश्यते। यो हानेन भोगेनापरामृष्ट: स पुरुषविशेष ईश्वर: ॥

 

अर्थ - अविद्यादि क्लेश हैं। पुण्य पापरूप कर्म हैं। उनके फल को विपाक कहते हैं। उन कर्मों के गुण अनुसार बासना आशय कहलाती हैं | वह कर्म वासनादि मन में वर्तमान हुए पुरुष में कही जाती हैं, क्योंकि वही उनके फल का भोक्ता है जैसे-जय पराजय योद्धाओं में वर्तती हुई उनके स्वामी राजा में कही जाती है। जो इन भोगों से रहित है वह पुरुषविशेष ईश्वर है।

 

न्याय दर्शन -

 

दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदन्तरापायादपवर्ग: ॥१ ।१ ।२॥

(दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानाम्‌) दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष तथा मिथ्याज्ञानों में (उत्तरोत्तरापाये) उत्तर उत्तर आगे आगे के पदार्थों का अपाय-निवृत्ति होने पर (तदतन्तरापायात्‌ ) उनके पूर्व पदार्थों का अपाय-निवृत्ति होने से (अपवर्ग: ) अपवर्ग-मोक्ष होता है।

 

तत्त्वज्ञान तथा मिथ्याज्ञान का परस्पर विरोध होने के कारण तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान रूप मूल कारण के निवृत्त होने पर उससे राग-द्वेषादि दोषों के निवृत्त हो जाने से पुण्य-पाप रूप दस प्रकार की वाचिक, मानसिक तथा शारीरिक प्रवृत्तियों के निवृत्त होने पर उसके कार्यरूप जन्म-संसारान्तर सम्बन्ध के न होने से दुःख का अत्यधिक तथा ऐकान्तिक निवृत्ति रूप अपवर्गजमोक्ष होता है।

 

 

इन दर्शनों के प्रमाण से सिद्ध है कि ईश्वर शरीर धारण नहीं करता।

  1. षड-दर्शन-सार = स्वामी वेदरक्षानन्द सरस्वती

Cagetories

Top Cagetories

Archive

Tags

Maharshi Rebel ved hindi marathi Satyarth Prakash स्वामी वेदरक्षानन्द सरस्वती darshan ishwar हैद्राबाद-स्वाधीनता-संग्राम आर्य समाज Arya Samaj Haydrabaad Swadhinta Sangram shastra ३३ कोटी देवता

Join With Us

FB.ui({ method: 'feed', link: 'https://developers.facebook.com/docs/' }, function(response){});