Aksharvigyan-अक्षरविज्ञान

0 - प्रस्तावना

Hindi

ओ३म्‌

प्रस्तावना 

हम लोग तथा अन्य फारसी, यहूदी, ईसाई और मुसलमान आदि न जाने कब से मानते चले आते हैं कि ' सृष्टि के आदि में परमात्मा ने मनुष्यों को ज्ञान और भाषा अवश्य दी' क्योंकि यदि ज्ञान न देता तो अकस्मात्‌, अज्ञात-स्थान में पहुँचकर आँख खुलते ही सूर्य, चन्द्र, नदी, पहाड़, अग्नि, जल, बिजली, मेघगर्जन, वन, खोह, सिंह, सर्प आदि अपरिचित और भयानक दृष्यों को. देखकर एक नवागत मनुष्य घबराकर पागल हो जाए और ऊँचा खाली चढ़ाव उतार तथा शीतोष्ण का मारा बेताब होकर गिर जाए और प्यास का मारा तो घन्‍टे ही दो घण्टे में मर जाए। क्योंकि उसे पानी और प्यास का सम्बन्ध तथा  परिचय तो है ही नहीं। उसे यह ज्ञान तो हुआ ही नहीं कि गले में और पेट में जो प्यास की जलन हो रही है वह उस सामने भरे हुए स्वच्छ तरल पदार्थ (पानी से) शान्त हो जायेगी यही हाल भूख का भी समझिये। 

अलिफ-लैला का 'अब्बुलहसन' जो खलीफा-बुगदाद के द्वारा बेहोश करके रात के समय राजभवन में लाया गया था, सुबह उठते ही घबरा गया था। वह उस समय और भी घबरा गया था, जब उसने दो-तीन दिन के बाद (बादशाह हो चुकने पर) फिर उसी अपने घर की टूटी खाट पर आँख खोली थी और सोच रहा था कि “यह हालत सत्य है' या पहले की ? मैं अब्बुलहसन हूँ या खलीफा बुगदाद ? 

इन्हीं दलीलों और अनुभवों के कारण एक दीर्घकाल से विश्वास हो रहा हैकि आदि सृष्टि में ज्ञान अवश्य मिला, ज्ञान मिला तो भाषा अवश्य ही मिली;  क्योंकि ज्ञान का उपयोग बिना भाषा के हो ही नहीं सकता। 

यद्यपि इस कुदरती ज्ञान और भाषा में समय-समय पर मनुष्यों ने अपनी चटनी पापड़ मिला-मिलाकर नाना प्रकार के पन्‍थ मजहब मतों की सृष्टि की और किसी न किसी ईश्वरी ज्ञान, अर्थात्‌ इलहाम का सहारा भी लिया किन्तु हमेशा हर पंथ प्रवर्तक यह भी कहता गया कि “मैं कोई नया मत प्रकाशित नहीं करता किन्तु पुराने मतों का ही सुधार (रिफार्मेशन) अर्थात्‌ संशोधन करता हूँ। 

शुरू से आज तक के बड़े-बड़े संशोधकों की जब हम एक श्रृंखला बनाते हैं तो हजरत मुहम्मद साहब को ईसा, मूसा और जरदुश्त के मत का अनुयायी पाते हैं। हजरत ईसा को मूसा और बौद्ध का अनुयायी पाते हैं। मूसा जरदुश्त का और जरदुश्त तथा बौद्ध वेदों के गुणानुवाद गाते हैं। वेदों के मानने वाले वैदिक ऋषि जिनको ऐतिहासिक दृष्टि से सारे संसार ने सब विद्याओं का प्रकाशक मान लिया है, अपनी हर पुस्तक में अपनी प्रत्येक रचना में, बात-बात में, श्राश-श्वाश में बेदों का ही दम भरते हैं। वे वेदों को सारे ज्ञान का भण्डार बतलाते हैं और कहते हैं कि हमने जो कुछ सीखा है, इन्हीं से सीखा है। वे बड़े जोर से दावे के साथ साबित करते हैं कि- “बुद्धिपूर्वावाक्‌ प्रकृतिर्वेदे” (वेशेषिक) अर्थात्‌ वेदों की वाक्य रचना बुद्धिपूर्वक अर्थात्‌ ज्ञानयुक्त है। उसमें ऊटपटांग कोई बात नहीं है। ऋषियों का यह कथन कल्पना नहीं है। वेदों की भाषा बहुत पुरानी होने पर भी उसकी शैली उसका क्रम नष्ट हो जाने पर भी आज वेदों के अनेक स्थल बड़े सरल भाव से बड़ी-बड़ी विज्ञान की बातें, बड़े-बड़े सामाजिक नियम, बड़े-बड़े राजनैतिक विचार, ब्रह्मचर्य की शिक्षा, संस्कार, वर्णाश्रम धर्म की गूढ़ कुंजियाँ, वैद्यक, ज्योतिष, भूगर्भ, रसायन और रथ, जहाज, विमान आदि की चर्चा उत्तम रीति से करते हैं। 

ऋषि लोग वेदों को सब विद्याओं का भण्डार कहते हुए उन्हें ईश्वरदत्त बतलाते हैं। वे कहते हैं कि वेद ईश्वर का श्वास है। 

यह सिद्धान्त अखण्डरूप से कोई नहीं कह सकता कि कब से माना जाता हुआ आज तक उसी प्रकार माना जाता है। कुछ लोगों को छोड़कर शेष सारा संसार इलहाम अर्थात्‌ ईश्वरी ज्ञान का अब तक कायल है। 

यद्यपि पूर्व समय में कभी-कभी किसी-किसी स्वच्छन्द विचार विद्वान्‌ ने इस बात से इन्कार किया है- इस विश्वास का विरोध किया है- इसके विरुद्ध पुस्तकें लिखी हैं और वेद, ईश्वर, पुनर्जन्‍्म आदि सिद्धान्तों का तिरस्कार किया है तथापि दर्शन और विज्ञान का सहारा लेकर विद्वानों ने उनका उसी समय खण्डन भी किया है और फिर उसी पुरानी थाती का जीर्णोद्धार करके कायम रखा हे। 

यद्यपि इस प्रकार के और इससे भी अधिक भयानक सैकड़ों हमले हुए, पंथ मत सम्प्रदाय भी हजारों चले किन्तु इस प्रबल ऐतिहासिक और दार्शनिक घटना को कि “बिना सिखाये ज्ञान नहीं आता इसलिये आदि सृष्टि में ईश्वर ने ज्ञान दिया'' किसी न किसी रूप में सब मानते रहे और इलहाम के नाम से इसी सिद्धान्त की नकल करते रहे, जिसका परिणाम कुरान, बाइबिल, गाथा  और ग्रंथसाहब आदि हैं। मतलब यह है कि आदि सृष्टि से लेकर आज तक यह सिद्धान्त जीता जागता, गर्जता तर्जता हुआ संसार में हिमालय की तरह अटल रहा और सर्व धर्मों के तारतम्य कारण कार्य और ऐतिहासिक क्रम से वेदधर्म  ही सबसे प्राचीन और सब धर्मों का पिता तथा बेद भाषा ही सब भाषाओं की जननी साबित होती रही। गत शताब्दी के बहुभाषाभाषी प्रोफेसर मैक्समूलर ने भी अपने 'चित्स फ्राम ए जर्मन वर्कशाप, नामक ग्रंथ में लिखा है कि- 

संसार की लाइब्रेरी (पुस्तकालय) में वेद सबसे प्राचीन पुस्तक है ' 

यही नहीं किन्तु प्रोफेसर मैक्समूलर संसार की भाषाओं के अनेक भेद करके सब भेदों को दो बड़े भागों में बाँटते हैं। वे कहते हैं कि संसार की सब भाषा में आर्य और सेमिटिक दो महाभाषाओं की शाखा और प्रशाखा हैं। इन दोनों में से आर्यभाषान्तर्गत संस्कृतभाषा को बड़ी ही उत्तम और परिपूर्ण बतलाया है। 

पाठक! अब मिस्र की भाषा ने सिद्ध कर दिया है कि आर्य और सेमिटिक भाषा भिन्न-भिन्न दो भाषा नहीं किन्तु एक ही किसी भाषा की दो शाखा हैं। मिस्र भाषा में सब धातु आर्य भाषा की प्रकृति के हैं किन्तु व्याकरण रचना सेमिटिक जैसी है। सेमिटिक भाषा की प्रतिनिधि अरबी का व्याकरण संस्कृत से मिलता है और समस्त आर्यभाषायें संस्कृतभाषा से निकली हैं, जैसा कि दूसरे प्रकरण से ज्ञात होगा। संस्कृतभाषा वेदभाषा से निकली है अत: संसार की सब भाषायें वेदभाषा की ही शाखा प्रशाखा हैं। तात्पर्य यह कि जितनी भाषा हें सबका मूल वेदभाषा है, इसको विद्वानों ने अनेक बार सिद्ध किया है और विद्वानों ने ही मान भी लिया है किन्तु ' भाषा के साथ अर्थ का क्या सम्बन्ध है' यह प्रश्न है - जिसने हमें इस पुस्तक के लिखने की प्रेरणा की। 

वेदभाषा वैदिक शब्दों से बनी है और वैदिक शब्द अपनी-अपनी धातुओं से बने हैं। धातु सब अक्षरों से बने हैं, अब प्रश्न यह है कि दो, एक अथवा ढाई तीन अक्षरों के योगरूप एक ध्वनि (जिसे धातु कहते हैं) का अमुक अर्थ क्‍यों किया जाता है? क्‍यों 'पा' का अर्थ 'रक्षणे' किया जाता है ? और क्‍यों 'चदि' का अर्थ 'अह्ादे ' बतलाया जाता है ? 

यह प्रश्न मुझे अनेक दिनों से हैरान किये हुए था। मैं सीधे-सादे विश्वास के कारण जानता था कि वेद ईश्वरी ज्ञान है उन बेदों की धातुओं का अर्थ किसी न किसी दिन अवश्य वैज्ञानिक रीति से सिद्ध होगा। किन्तु थोड़े दिन के बाद मैने प्रोफेसर मैक्समूलर के ग्रंथ में यह पढ़ा कि ““किस प्रकार शब्द विचार को प्रगट करता है ? किस प्रकार धातु विचारों के चिह् हो जाते है? कैसे ' मा! धातु नापने अर्थ में ली गई और “मन' धातु बिचार अर्थ में 'गा' जाने 'स्था' ठहरने 'दा' देने 'मर' मरने “चर' चलने और “कर' करने अर्थ में माना गया?! (देखो लेकचर ऑन दी साइंस ऑफ लेंग्वेज भाग- १ पृष्ठ ८२) इसके आगे आप कहते हैं कि 'इस प्रश्न का उत्तर न तो आज तक किसी ने दिया और न दिया जा सकेगा। मेरा कुतूहल बढ़ गया। मैं बारीकी से इसे सोचने लगा। संस्कृत साहित्य की गूढ़-गहन का अवलोकन करने लगा। कुछ दिन के बाद मुझे जान पड़ा कि मैक्समूलर ने जल्दी की। यदि वे धैर्य के साथ संस्कृत साहित्य का अवलोकन करते तो अपने आप सब धातुओं के अर्थों का सम्बन्ध मालूम हो जाता। वे जान जाते कि संस्कृत में एक-एक अक्षर का भी अर्थ विद्यमान है। किन्तु उन्होंने एकाक्षर अर्थ पर कभी विचार ही नहीं किया, नहीं तो सब उलझन सुलझ जाती और धातुओं का वैज्ञानिक अर्थ उन्हें ज्ञात हो जाता क्योंकि संस्कृत में प्राय: सभी मूलाक्षरों का अर्थ प्रचलित है, यथा अ-नहीं, अभाव (अव्यय)। आ-भलीभाँति कुल। ई-गति। उ-और, वह। ऋ-गति। लृ-गति। क-बाँधना, रोकना, प्रश्न करना (क: कि का) ख- आकाश, पोल। ग-गति। च-पुनः । ज-उत्पन्न होता। झ-नाश होना। ड-करना। (डुक्रिज) तरपार। दादेना। धानधारण करना। न-नहीं। पा-रक्षा करना। भा-प्रकाश करना। मा-नापना। य-जो। रा-देना। ला-लेना। ब-गति। स-शब्द करना, साथ होना और ह-निश्चय आदि। 

इन्हीं सब मूलाक्षरों से धातु बने हैं। यदि इन अक्षरों का वैज्ञानिक रीति से अर्थ सिद्ध हो जाये तो आप ही आप समस्त धातुओं का अर्थ सिद्ध हो जायेगा क्योंकि सब धातु तो इन्हीं से बने हैं। धातु क्या भाषा का उपादान ही ये अक्षर हैं। 

मेरा विश्वास है कि भाषाओं के ही शब्द नहीं किन्तु जो कुछ शब्दमात्र होता है, सब इन्हीं वैदिक ६३ अक्षरों के अन्तर्गत है। पशुओं, पक्षियों की चिल्लाहट अथवा थाली, लोटा, पत्थर, लकड़ी आदि की आवाजें या मृदड़, सितार आदि की ध्वनियाँ सब इन्हीं ६३ अक्षरों के ही अन्तर्गत हैं। गौ के शब्द को 'बां' और बिल्ली के शब्द को 'म्यूँ' तथा छोटी-छोटी चिड़ियों के शब्द को 'चूँचूँ' कहना इस बात का बड़ा भारी प्रमाण है कि गाय, बिल्ली और चिड़ियों के मुख से वे शब्द निकल रहे हैं। इसी प्रकार 'ठन ठन' 'खट खट' की आवाजें भी अपने शब्दों अर्थात्‌ उन-उन अक्षरों के ही कारण 'ठन ठन' या 'खट खट!' सुनाई पड़ती हैं। 

मुझे इस बात पर उस दिन विश्वास हुआ था, जिस दिन मेरे उस्ताद, जो मुझे मृदड़ सिखलाते थे दूर से 'किट तक' और 'तिर कट' का भेद मालूम कर लेते थे। उन्हें 'तिरकट ' में किट तक की गलती तुरन्त मालूम हो जाती थी। 

जब हम सारे विश्व के शब्दों में वही ६३ अक्षरों को ही फैला हुआ पाते हैं तो विवश होकर विचार करना पड़ता है कि इन शब्दों के साथ वैज्ञानिक रीति से कुछ अर्थ का भी सम्बन्ध होगा। प्रत्येक आवाज के उच्चारण से मन में जो कई रसों का प्रादुर्भाव होता है इसका भी कोई कारण अवश्य है। क्‍यों किसी अक्षर की ध्वनि में मधुरता और किसी में कठोरता है ? क्‍यों टबर्ग कठोर और सकार मकार कोमल सुकुमार समझे जाते हैं ? क्यों कोई शब्द भ्यदायक और कोई करुणामय सुनाई पड़ता है ? क्यों कौवे के 'का्यँ कार्य” और कोयल क॑ 'कू' में जमीन-आसमान का अन्तर है ? अन्तर का कारण साफ है। देखो :- 

प्रत्येक अक्षर अपनां-अपना उच्चारण अलग-अलग रखता है। हर ध्वनि का आकार प्रकार अलग-अलग है, अतएव सबका भाव, अनुभव, असर और अर्थ भी अलग-अलग है। 'कोमल' 'मंगल' 'सरस' 'आनन्द' और ' घृणित कठोर! “क्रोध! ' भ्रष्ट' आदि शब्द अपने-अपने रूप में ध्यान देने योग्य हैं। 

आज यदि किसी अँग्रेज से प्रश्न किया जाये कि 'Father” (फादर) का अर्थ 'पिता” क्यों करते हैं? 'वृक्ष' अर्थ क्‍यों नहीं करते ? तो वह जवाब देगा कि यह शब्द लेटिन भाषा में 'पिटर' और जेंद में 'पितर' था। अनुमान है कि लेटिन से ही आकर अंग्रेजी में 'फादर ' हो गया है और उन्हीं के माफिक लेटिन अर्थ भी माना गया है। इसी तरह जेंद वाले भी कह देते हैं कि यह संस्कृत के 'पितृ' शब्द से हमारे यहाँ आया है और उसी अर्थ में भी है। अब हम संस्कृत के पंडितों से पूछते हैं कि आप 'पिता' शब्द का अर्थ बाप न करके “वृक्ष' क्यों नहीं करते ? पण्डित उत्तर देते हैं कि 'पिता' शब्द 'पां-रक्षणे' धातु से बना है इसलिये हम “पा! का अर्थ 'रक्षा' करते हैं। किन्तु जब हम पण्डितों से फिर पूछते हैं कि “पा-रक्षणे' न करके 'पा-पह्कविते' (वृक्ष), अर्थ क्यों नहीं करते ? तो उसका मुख बन्द हो जाता है। उसी का मुख बन्द नहीं हो जाता किन्तु समस्त संस्कृतज्ञों और निरुक्त को छोड़कर सारे संस्कृत-साहित्य का दम घुटने लगता है और सवाल ज्यों का त्यों रह जाता है कि शब्द के साथ अर्थ का क्या सम्बन्ध है ?१-( १. केवल निरुक्तकार लोग ही इस विद्या को जानते थे। निरुक्तकार हमेशा से रहे हें।यास्क मुनि के पूर्व शाकपूणि आदि ऋषि इस विद्या के ज्ञाता हो गये हैं।) 

मेरा बहुत दिन से विचार था कि इस विषय में कुछ माथामारी करूँ और किसी प्राचीन शिक्षा पुस्तक के द्वारा इस जटिल ग्रंथि को उन्मुक्त कर डालूँ, किन्तु हजार हाथ-पाँव मारने पर भी कुछ नतीजा न निकला कोई प्राचीन शिक्षा पुस्तक न पा सका। केवल संस्कृत साहित्य अवलोकन करने लगा और प्रत्येक अक्षर के भाव पर ध्यान रखते हुए अर्थों पर भी विचार करने लगा। कुछ दिन के बाद सबसे पहले मुझे “अकार' और “हकार' का विचित्र अर्थ-कौशल ज्ञात हुआ। मुम्बई में बापूजी शिवकरजी तलपदे से मिलकर इस विषय में और भी अधिक उत्तेजना मिली और क्रम-क्रम 'सरगुजा राज्य' की रम्यवनस्थली में कोई ४ वर्ष लगातार परिश्रम और अविश्रान्त चिन्ता करने पर समस्त मूलाक्षरों के स्वाभाविक भाव ज्ञात हो गये। केवल अर्थ ही ज्ञात न हुए किन्तु अर्थों के साथ उनके स्वाभाविक रूपों (चित्रों) का भी पता लग गया। 

जब मुझे इन अक्षरों के अर्थों और रूपों की एक कुदरती श्रृंखलाबद्ध अर्थ-परिपाटी ज्ञात हुई तो मैंने प्रसन्न होकर यह बात इधर-उधर अपने पढ़े-लिखे मित्रों से कहना शुरू किया। संस्कृत के विद्वानों ने तो इसे उपेक्षा से सुन लिया और प्रसन्न होकर कह दिया कि हाँ परिश्रम सराहनीय है, किन्तु अंग्रेजी शिक्षा सम्पन्न सभ्यों ने मुझे बनानां शुरू किया। “उन्होंने कहा “तुम अजब आदमी हो, तुम्हें यह पुराना सड़ा खप्त क्‍यों सूझा ? भाषा भी कहीं कुदरती होती है ? भाषा क्‍या कोई सर्दी गर्मी है, जो कानून कुदरत के माफिक होगी ? भाषा तो बिल्कुल कृत्रिम चीज है। वह शुरू से आखिर तक एकदम मनुष्यों की कल्पना है। हम रोज सैकड़ों शब्द बनते हुए देखते हैं। कहो अभी हम सैकड़ों शब्द बना दें। अतएव जब शब्द ही कृत्रिम हैं तो इनका कुदरती (स्वाभाविक) और नेचुरल अर्थ क्‍या होगा? शुरू में मनुष्य बिल्कुल बोल नहीं सकता था, वह 'ऊँ', 'आँ', 'कूँ', 'काँ' तथा नाक, मुख, आँख और हाथों के इशारों से काम चलाता था। पश्चात्‌ उन्हीं 'कूँ', 'काँ' की अधिकता हुई और धीरे-धीरे “कूँ' के साथ 'रोटी' 'चों' के साथ पानी और इसी प्रकार 'दा' के साथ देना, “' के साथ जाने आदि का अर्थसम्बन्ध हो गया और जरूरतों तथा कुदरत की चीजों के साथ यही “कूं पूं' बड़े-बड़े शब्दों के रूप में परिवर्त्तित हो गये, अतः इन शब्दों का कोई स्वाभाविक अर्थ हो ही नहीं सकता। हाँ, यदि आदि सृष्टि में मनुष्य मनुष्य ही रूप में पैदा हुआ होता तो हम मान लेते/कि उसको भाषा कुदरत की ओर से मिली, क्‍योंकि मनुष्य बिना सिखाये बोल नहीं सकता। किन्तु जब मनुष्य आदि में मनुष्य था ही नहीं, जब वह पहले बन्दर का बच्चा था, बन्दर से गौरिल्ला (वनमानुष) का बच्चा हुआ और गौरिल्ला से मनुष्य हो गया तब उसमें कुदरती भाषा कहाँ से आई ? और जब कुदरती भाषा ही नहीं तो कुदरती अर्थ कहाँ से होगा ?” 

मैंने पहले तो यह ये बातें दो चार ऐसे भले आदमियों के मुँह से सुनी जिन्हें मैं प्रायः आवारा समझा करता था, किन्तु जैसे-जैसे मैने अंग्रेजी शिक्षा सम्पन्न महानुभावों से मुलाकात बढ़ाना शुरू की वैसे ही वैसे मालूम होता गयां कि जिन लोगों ने मैट्रिक से लेकर आगे तक अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की है तथा कुछ सृष्टि संबंधी धार्मिक झगड़ों में रहते हैं और वैदिक सिद्धान्तों के मार्मिक रहस्यों से करे हैं वे प्रायः सबके सब इसी इबोल्यूशन थ्योरी के, इसी विकासवाद की बाढ़ के शिकार हो चुके हैं। चाहे वे आर्यसमाजी हों या धर्मसमाजी, मुसलमान हों या ईसाई यदि उन्होंने यूरोपीय विज्ञान, प्राणी धर्मशास्त्र और वनस्पति शास्त्र तथा विकास आदि की दो चार पुस्तकें पढ़ी हैं, यदि उन्होंने डार्बिन स्पेंसर आदि की रचना देखी है तो निस्सन्देह सबके सब विकासवादी हैं- नेचरिया है। इसमें प्रमाण देने की जरूरत नहीं है। उनके लिये यह प्रबल प्रमाण है कि उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार करने वाली ईवोल्यूशन थ्योरी के खण्डन में आज तक कोई पुस्तक नहीं लिखी। भारतवर्ष का यह मार्मिक दृश्य देखकर, न जाने कब की सौंपी हुईं धरोहर में घुन लगते देखकर भीतर ही भीतर धार्मिक ममरिथियों को चकनाचूर होते देखकर और धार्मिक पुरुषों को बेवकृफों की जमात नाम पाते देखकर अन्तःकरण चिल्लाकर रो उठा- और भीतर ही भीतर विचार हुआ कि लोगों ने बुरी तरह धोखा खाया। विज्ञान का नाम बातकर इन्हें अज्ञान सिखाया गया, गुड़ दिखाकर ईंट मारी गई। किन्तु फिर विचार हुआ कि नहीं, धोखा नहीं खाया, उन्होंने जो सच समझा उसे माना, झूठ क्‍यों मानें ? झूठ चाहे स्वदेशी हो या विदेशी, न खरीदना चाहिये, किन्तु सत्य चाहे विदेशी हो या स्वदेशी, अवश्य ग्रहण करना चाहिये, किन्तु थोड़ी देर में आप ही आप यह विचार हुआ कि सत्य और झूठ की पहचान क्‍या है ? 

जब तक सारी सृष्टि के मूल तत्त्वों, उनके भेदों, उनके गुण, कर्म स्वभावों तथा संयोग वियोगों और आकर्षणानुकर्षणों अथवा उनके कार्य कारण सम्बन्धों का हस्तामलक ज्ञान न हो, सृष्टि की आदि सीमा और अन्तिम रेखा तक दृष्टि प्रवेश न कर जाये, जब तक सांश विश्व ब्रह्माण्ड आँख खोलते ही अपनी सच्ची हकीकत न कहने लगे, प्रकाश, विद्युत, सर्दी, गर्मी, सूर्य, चन्द्र, नदी, पहाड़, पशु, पक्षी, कीट, पतड़ सबके सब बिना किसी रुकावर्ट के अपनी-अपनी सच्ची हकीकत न कह दें, यथार्थ क्‍या है, जब तक बिना भ्रम और संशय के हृदयज्ञम न हो जाये, तब तक 'अमुक ही सत्य है' क्या ऐसा कहना कभी सत्य हो सकता है? क्‍या केवल सौ वर्ष जीने वाला मनुष्य इतना कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकता है? क्‍या केवल ज्योतिष, गणित, भूगोल, इतिहास आदि विषयों में ही आयु पूर्ण नहीं हो जाती ? जब ये सब बातें सत्य हैं तो मनुष्य सत्य असत्य का अन्तिम निर्णय (फैसला) नहीं कर सकता? किन्तु पाठक! हमारे इन .अन्तर्भावों का उत्तर एक आस्तिक बुद्धि ने उसी समय इस प्रकार दे दिया कि; इस जगत्‌ की असली हकीकत वही जान सकता है जो इसकी असलियत का जानने वाला“( परमेश्वर) है। उसने हमारे लिये हमारे बुजुर्गों को शुरू में सब आवश्यक और प्रावेशिक तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषयों का बतला दिया है जिसे हम बुनियादी इलहाम कहते हैं। उसी पर विश्वास किये रहो और निश्चय जानो के एक न एक दिन यूरोप की ये समस्त उटपटांग थ्योरी झूटी साबित होंगी। उस वक्त तुम हँसोगे, बे रोयेंगे, क्योंकि तुम विश्वासी हो, नफे में हो। किन्तु उसी समय एक आधुनिक विज्ञानवादी ने कहा - 'ओ! काला मैन! यह कुछ भी नहीं हे। यह सब भीख माँगने वाली बात है। हमने अपने परिश्रम से आज तक॑ बहुत कुछ जाना है और इसी प्रकार आगे भी जानने की आशा है। तर्क, विज्ञान और दर्शन से काम लेते चले जायें एक दिन सब उलझनें सुलझ जायेंगी और सब कुंछ जान जायेंगे। 

पाठक ! यूरोपीय उत्तरों को सुनकर मैंने उनके सिद्धान्तों को एक अरसे तक ध्यान में रखा और समय-समय पर उन पर विचार करता रहा। आखिर में मुझे उनकी सारी थ्योरी गलत जान पड़ी ओर ज्ञात हो गया कि वे लोग अभी सृष्टि विद्या में बिल्कुल बच्चे हैं। किन्तु हाँ उनके विचार करने की शैली विकट है। वे नीचे से ऊपर को नहीं चढ़ते बल्कि ऊपर से नीचे को जाते हैं। वे कारण से कार्य की जाँच नहीं करते किन्तु कार्य से कारण जानना चाहते हैं (जो मनुष्य की बुद्धि से बाहर है) अतः हम भारतवासी पढ़े-लिखे धार्मिकों से कहते हैं कि आप लोगों में जो पारस्परिक धर्मान्दोलन हो रहे हैं वे निकम्मे हैं। तुम पहले पाश्चात्य विज्ञान-धर्म के साथ आन्दोलन करो और उसे परास्त करो। यदि तुम उसे परास्त नहीं कर सकते, यदि तुम्हारे सिद्धान्त यूरोपीय विज्ञान शैली के काटने वाले नहीं हैं, यदि वे केवल 'इतिश्रुते:” पर ही अवलम्बित हैं और यदि कलिकाल को कोसने तक ही आपका तर्कशास्त्र है तो कान खोलकर सुन लो, सावधान होकर समझ लो और चश्मा लगाकर देख लो कि ' तुम्हारे विश्वासों का मूलोन्मूलन भीतर ही भीतर हो गया है। यह बात निर्विवाद है कि पचास वर्ष के बाद, आज जिन मस्जिदों और मन्दिरों के लिये सैंकड़ों आदमी गोली का शिकार बन रहे हैं और जिस वेदधर्म की रक्षा के लिये गुरुकुल और काशी विश्वविद्यालय के खोलने वाले तन मन धन से कुर्बान हो रहे है, उन्हीं की सन्तान बिना किसी दबाव के आपसे आप वक्त मन्दिरों, मस्जिदों और वेदशास्त्रों से दस्तरबरदार हो जायेगी और वे धार्मिक संस्थायें, वे मन्दिर और मस्जिदें आपसे आप अनाथ होकर थोड़े ही दिनों में नष्ट- भ्रष्ट हो जायेंगी, धूल में मिल जायेंगी।' 

हम धर्मसभाओं में श्राद्ध-खण्डन और मूर्ति-मण्डन के लेक्चर सुनते हैं मुसलमानों और आर्यों के मुबाहे से देखते हैं और हँसते हैं कि ये लोग आपस में एक-दूसरे को निर्बल समझकर बहादुरी दिखला रहे हैं, क्योंकि गरीब की औरत सबकी भावज। 

इन अंधश्रद्धालु दुराग्रहकारियों को खबर हों नहीं है कि हम यहाँ लड़ रहे हैं, उधर हमारा लड़का जो कालेज में पढ़ता है, चुपके-चुपके विकासवादी है, वह वेद-शास्त्र, बाइबिल, कुरान को नहीं मानता। उसको ईश्वर पुनर्जन्म पर पन्द्रह आने विश्वास नहीं है। वह केवल कष्ट के समय ईश्वर पर और उच्च-नीच व्यक्तियों को देखकर पुनर्जन्म विश्वास कर लेता है। यद्यपि यह हालत ईसाई, मुसलमान, हिन्दू, सिख सभी में पाई जाती है, पर याद रहे कि यह मौका सबसे अधिक खतरनाक आर्यसमाज के लिये है, जिसका दावा है कि- 'वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है और सब सत्य विद्याओं का आदि मूल परमेश्वर है।' 

पाठक ! यद्यपि पहले मेरा विचार था कि मैं केवल अक्षर-विज्ञान का एक छोटा-सा ट्रैक्ट (पुस्तिका) निकाल दूँ किन्तु जब भाषा-विज्ञान और मनुष्य सृष्टि तथा ईश्वर आदि विषयों पर उपरोक्त अनेक प्रकार की शंकाओं का प्रचण्ड प्रवाह उमड़ता हुआ दिखा तो उन सब शंकाओं का समाधान करते हुए ही अक्षर-विज्ञान लिखना मुनासिब समझा। यही कारण है कि मूल-विषय एक प्रकरण में और सहकारी विषय दो प्रकरणों में पूरे हुए हैं। 

इस पुस्तक में तीन प्रकरण हैं, पहले प्रकरण में बतलाया गया है कि सृष्टि का रचने वाला परमेश्वर अवश्य है। आदि में मनुष्य का बाप मनुष्य ही था बन्दर नहीं। सारी सृष्टि एक ही स्थान अर्थात्‌ हिमालय पर ही पैदा हुई थी। मूल पुरुष भाषा बोलते हुए ही पैदा हुए थे और जो शब्द बोलते थे वे अर्थ और ज्ञानयुक्त थे। दूसरे प्रकरण में दिखलाया गया है कि वह आदि ज्ञान वेद और आदि भाषा वैदिक थी। इसकी पुष्टि में बतलाया गया है कि ज्योतिष वैद्यक नीति धर्म व्यापार और राज्यप्रणाली पृथ्वी भर में भारतवर्ष और वेद से ही फैली है तथा संस्कृत, जेन्द, फारसी, अंग्रेजी, अरबी, स्वाहिली, चीनी, जापानी और द्राविडी आदि संसार की प्रधान-प्रधान भाषायें, जो अपनी अनेक शाखाओं के साथ दुनिया भर में फेली हैं, वेदभाषा से ही निकली हैं। 'सब भाषाओं के शब्द देकर यह विषय प्रमाणित किया गया है।' तीसरे प्रकरण में बतलाया गया है कि वेदभाषा मनगढ़न्त नहीं है। उसके धातु सृष्टि नियम के अनुकूल और एक एक अक्षर विज्ञान के अनुसार अपना-अपना अर्थ रखता है, अत: अर्थ के अनुरूप ही उन अक्षरों का रूप भी बनाया गया था और ऋषि लोग वैदिक काल में ही लिखना जानते थे। 

ये सब बातें विशेषकर आधुनिक यूरोपीय शैली से ही प्रतिपादित की गई है। हाँ, कहीं-कहीं ऋषियों के भी विचार दिये गये हैं। इस प्रकार से हमने इस पुस्तक को समाप्त किया है। 

यद्यपि मैं ऐसी पुस्तकों के लिखने की योग्यता कदापि नहीं रखता और न मुझे उचित ही था कि मैं ऐसे गहन गम्भीर दुर्ज्ेय विषयों में हाथ डालता किन्तु मैं विवश था, मेरा अन्तरात्मा विचलित था, मैंने यूरोपीय विज्ञान को दूर तक सोचने के बाद उसे अपूर्ण और अशुद्जुल पाया था, ऐसी हालत में मनुष्यों को भ्रम से बचाना और देश के इतिहास की संरक्षा करना मेरा कर्त्तव्य था, अतएव मैंने अपने अन्दर के उद्ारों को-मानसिक भावों को इस रूप में, इस आकार में ढालकर आपके सामने रखा है। आपको यदि इतिहास और उसके प्रभाव की कुछ “कदर है' यदि आपको ज्ञात है कि मनुष्य अपनी और अपने सम्बन्धियों की सच्ची बड़ाई से कुछ बल और उत्तेजना प्राप्त कर सकता है और सच्चे धर्म से सुखी हो सकता है तो इससे लाभ उठाइये और एक योग्य कमेटी बनाकर इस विषय का एक अच्छा परिपूर्ण ग्रंथ बंनवांकर देश के होनहार बच्चों के लिये पहले से ही रख छोड़िये। 

इस पुस्तक में मैं जानता हूँ कि भाषा-सम्बन्धी और विषय प्रतिपादन सम्बन्धी अनेकों दोष होंगे पर निर्दोष रचना क्या सदोष मनुष्य से सम्भव है ? यह पुस्तक अपने विषय की सम्पूर्ण पुस्तक नहीं है किन्तु अपने विषय की आरम्भिक भूमिका है तथापि अपने विषय से सम्बन्ध रखने वाली सभी बातों का सार सच्चित किया है। इस पुस्तक के लिखने में जिन पुस्तकों से मुझे सहायता मिली है उनके लेखकों और सम्पादकों का मैं हृदय से आभारी हूँ सबसे अधिक मैं कृतज्ञ अपने परममित्र ठाकुर शूरजी वल्लभदास वर्मा ( मुम्बई निवासी) का हूँ, जिन्होंने मुझे हर प्रकार की सुविधा देकर इस पुस्तक के सम्पादन करने में समर्थ किया है।